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    गुरुगीता           
उच्चस्तरीय गायत्री साधना की आधारशिला 

गुरुदीक्षा केवल मंत्र दीक्षा की एक क्रिया तक सीमित नहीं है, वह तो मात्र किसी विद्यालय में नाम लिखाने जैसा है। 
गुरुदीक्षा से अभिप्राय मार्गदर्शक सद्गुरु से जुड़कर, शिष्य द्वारा गुरु के ज्ञानामृत के सतत प्रवाह से जुड़े रहना। 
यही कारण है कि माता पार्वती, गुरुदीक्षा देने को कहती हैं और देवाधिदेव महादेव उन्हें गुरुदीक्षा के साथ साथ गुरुगीता के आध्यात्मिक गूढ़ रहस्यों से परिचित करा देते हैं।
माँ पार्वती के रूप में एक शिष्य साधक की जिज्ञासा यही होती है, और होनी भी चाहिए कि आत्मसाक्षात्कार,
ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति कैसे हो ??
आखिर इसकी आवश्यकता ही क्या है ? सभी को इसकी आवश्यकता क्यों नहीं महसूस होती ??
सांसारिक ।मनुष्य की जीवात्मा माया मोह के आकर्षणों मे अपने स्वरूप को जब तक भूले रहती है तो उसे इस ब्रह्मस्वरूप-आत्मसाक्षात्कार (self realisation ) की आवश्यकता महसूस नहीं होती।
जिस प्रकार समुद्र से जल, भाप के रूप में बादल बनकर पृथ्वी पर मैदानों-पहाड़ों पर वर्षा की बूंदों के रूप में बरसता है।  वो बूंदें बहती हुई नदी में प्रवाहमान रहते हुए जब तक सागर में जाकर पुनः नहीं मिलती तब तक उनकी यात्रा जारी रहती है। 
जिस प्रकार कुतुबनुमा (compass needle )  को हिला दें तो वो तब तक कम्पन करती रहेगी जब तक वह उत्तर- दक्षिण दिशा में पुनः जाकर स्थित न हो जाये। ठीक उसी प्रकार---- ईश्वर अंश जीव अविनाशी के अनुसार 
ईश्वरीय चेतना से विलग हुई जीवात्मा जब तक परमात्मचेतना से पुनः संयुक्त न हो जाये उसका जन्म मरण का चक्र जारी रहता है ,  उसकी बेचैनी अशांति का अंत तब तक नहीं होता। 
इसीलिए अध्यात्म साधना का लक्ष्य ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति है। और इस  जीवन लक्ष्य की प्राप्ति बिना मार्गदर्शक सद्गुरु की शरणागति (श्रद्धा-निष्ठा-समर्पण-ध्यान) कृपा-आशीर्वाद के असंभव है। 
इसीलिये मेरा कथन है 
गुरु भगवान नहीं है, पर भगवान से कम मानने पर भी, शिष्य साधक को ब्रह्मस्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता। 
सम्पूर्ण गुरुगीता में देवाधिदेव महादेव भगवान सदाशिव ने इसी आध्यात्मिक गूढ़ रहस्य का उद्घाटन किया है। 
क्रमशः......
ओंकार नाथ शर्मा ' श्रद्धानंद '

 

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